स्वामी विवेकानंद ने भारत में उस समय अवतार लिया जब यहाँ हिंदू धर्म के अस्तित्व पर संकट के बादल मैहय रहे थे। पंडित-पुरोहितों ने हिंदू धर्म को घोर आंडबरवादी और अंधविश्वासपूर्ण बना दिया था। ऐसे में स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म को एक पूर्ण पहचान प्रदान की। इसके पहले हिंदू धर्म विभिन्न छोटे-छोटे संप्रदायों में बैटा हुआ था। तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म संसद में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और इसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई।
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, "यदि आप भारत को जानना नाहते हैं, तो विवेकानंद को पदिए। उनमें आप सबकुछ सकारात्मक हो पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहए।" रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था, "उनके ट्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए,
सर्वप्रथम हुए... हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि ये तथा सब पर प्रभुत्व प्राप्त
कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख, ठिठककर रुक गया
और आश्वर्यपूर्वक चिल्ला उठा, "शिव! यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे
पर लिख दिया हो।"
39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आने बाली अनेक शताब्दियों तक पौडियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
ये केवल संत ही नहप थे, एक महान देशभक्त, प्रखर वक्ता, ओजस्वी विचारक, रचनाधर्मी लेखक और करुण मावनप्रेमी भी थे। अमेरिका में लौटकर उन्होंने देशवासियों का आहवान करते हुए कहा था, "नया भारत निकल पड़े मोदी की दुकान में, भड़भूजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से निकल पड़े झाडियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।"
और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने।